कर सिरहाने एडियाँ घसीट कर
साफ़ फर्श पर गंदे पाव लिए चलता हूँ |
कोने में पड़े ढेर, पर खुली पड़ी
उलटी चिथडी किताब के एकांत में
अतीत का शोर सुन चलता हूँ |
मेज पर सजी, रुकी घडी के
चलते काँटों से बेसबर मैं
दीवारी शीशे की पर्छाइ में चलता हूँ |
मैं चलता तो हूँ पर, हर चेहरे में
उस नूर की तलाश करता
अपनी बेवफाई में जलता हूँ |
2 comments:
अद्भुत... मनन चाहे जितना भी सरल हो. उसको एक तार से बाँध भावो को व्यक्त करना ही काव्य है... पीड़ा जब रोशनाई बन कर लेखनी से बहती है तो सत्य भी शिव हो जाता है... अद्भुत..
हर्ष इस बात का है की मनोदशा की अभिव्यक्ति का आभास हुआ किसी को :) धन्यवाद
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