व्याकुल सा हृदय लिये,
सूखी आभा मे पनपे,
एक मानस की कथा -
मै बनना नही चाहता।
मरूस्थल की साँसों सा,
केक्ट्स का काँटा,
अपनो मे गया बाँटा -
मै बनना नही चाहता।
आसाध्यों से पीडित,
दामिनी से गया मारा,
उफ़, ये बेचारा!
मै बनना नही चाहता।
हांथ दो मुझे तुम।
अब तुम ही मुझे उठाओ।
मै तेरा, औरो का
मै बनना नही चाहता।
-मनव
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1 comment:
हर ओर में भी,
पा लेता तु झलक मेरी,
पर रिश्तो का ताना,
अब मैं भी बुनना नही चाहता..
लगा लेता तुझे,
वक्ष से अपने,
पर अब एक हारा मातृत्व,
मैं बनना नहीं चाहता|
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