Tuesday, July 31, 2007

क्यों प्यार करता हूँ तुम्हे मै

क्यों प्यार करता हूँ तुम्हे मै,
मै ढूंढता उसके बहाने।
मेरे सुर मे जो शब्द डाले
मै खोजता ऐसे तराने।

सीप सी आँखों के तल मे,
मोती नित क्यो पल रहा है?
परे पंखुड़ियों की लहर के
नीचे क्या क्या चल रहा है?

वर्क सोने का पहन कर
मुझको ऐसे ना रिझाओ।
पर्दे जिसमे एक ना हों
वो रूप वासत्विक दिखाओ।

स्वप्न देखा जो गोधुली मे
उसकी क्या तुम ईक स्मृति हो?
या, धुंध भरी, माया ही हो तुम,
कैसी विस्मयी तुम कृति हो?

-मनव

Wednesday, July 04, 2007

मै बैठ तुम्हारी राह देखता।

I wrote these lines sitting infront of Stella's at collagetown in Ithaca, June 4th '07. It was raining mildly and the water falling on the road infront of me inspired me to write down some stuff. I jotted down a few lines on a piece of paper and later refined them sitting in my cubicle to the following. Enjoy them! :)

बूँदों के कलरव मे उत्सुक,
मै बैठ तुम्हारी राह देखता।
गर्म जमीं से उठता धूंआ,
मीचीं आंखों पर छींट फेंकता।

त्वरित धरा पर बूंदाबांदी,
परौं पर पडता ये पानी।
वृष खडा, उलझे से पत्ते,
बहती हवा, करती मनमानी।

छ्न कर गिरते ये मोती,
अरमानों के गीत सुनाते।
आंख मुंद कर मैं बैठा हूँ,
खोले पर, जो तुम आ जाते।

दीवारो से रिसती लडियां,
रेश सरीखी, मै हूँ अभिलाषा।
धूल धरा की उत्कंठा सा,
मै भी वर्षो का हूँ प्यासा।

सडक पार खडा पथिक है,
देख मचलती है ये स्याही।
मै बैठ किनारे राह देखता,
आ जाओ मेरे हम-राही।

-मनव