Monday, August 27, 2012

मैं चलता हूँ

कमरे की जमीन पर पड़ी धुल को 
कर सिरहाने एडियाँ घसीट कर 
साफ़ फर्श पर गंदे पाव लिए चलता हूँ |

कोने में पड़े ढेर, पर खुली पड़ी 
उलटी चिथडी किताब के एकांत में
अतीत का शोर सुन चलता हूँ |

मेज पर सजी, रुकी घडी के 
चलते काँटों से बेसबर मैं 
दीवारी शीशे की पर्छाइ में चलता हूँ |

मैं चलता तो हूँ पर, हर चेहरे में
उस नूर की तलाश करता 
अपनी बेवफाई में जलता हूँ |

Wednesday, July 04, 2012

बिखरे कण

कुछ कहेंगे तो कहोगी 
कह दिया कितना है किसने
कर सको तो कर दो इतना 
रहने दो मेरे दिल को रिसने


नग्न मन की नस में देखो
लहू कैसा निर्भीक है 
जखम की पीड़ा बताती
निशाना कितना सटीक है