Tuesday, December 18, 2007

मौत भी खुशनसीबी सी लगेगी फिर।

ज़िन्दगी मे एक बार प्यार कर के देख,
मौत भी खुशनसीबी सी लगेगी फिर।
यार की जुदाई मे बेकरार हो के देख,
शानोशौकत भी गरीबी सी लगेगी फिर।

एक बार दिल को धड़क जाने दे जरा,
एक बार आंखों को बहक जाने दे जरा।
के एक बार तू भी, बीमार हो के देख,
शक्ल खुद की अजनबी, सी लगेगी फिर।
ज़िन्दगी मे एक बार प्यार कर के देख,
मौत भी खुशनसीबी सी लगेगी फिर।

पतंग की डोर बन, हवा मे लहक के आ,
इस नशे के जाम मे, जरा चहक के आ।
मोहब्बत एक बार बेशुमार कर के देख,
ये दुनियां बहुत महज़बी, सी लगेगी फिर।
ज़िन्दगी मे एक बार प्यार कर के देख,
मौत भी खुशनसीबी सी लगेगी फिर।

सपने देख ले अब तूभी बहार मे,
अंग अंग रिसने दे प्यार के घुबार मे।
एक बार बेपनाह लाचार होके देख,
ये रोशनी भी बेहोशी, सी लगेगी फिर।
ज़िन्दगी मे एक बार प्यार कर के देख,
मौत भी खुशनसीबी सी लगेगी फिर।

-मनव

Friday, October 26, 2007

कत्ल किया तुमने, हाथों को फ़िरा के।

नज़र किस डगर पे, ये ऐसे चली है,
कि ढूंढें है तुमको, भी आंखें चुरा के।
ये आलसाया मै हूँ या तुम हुई ओझल,
कि कत्ल किया तुमने, हाथों को फ़िरा के।

ये ज़ख्म बदनसीबी, इश्क का गहरा।
ये गुलामी का आलम, बेहोशी का बहाना।
कि कैसे बताऊ ये दवा ही ज़हर है,
ये हुस्न-ए-निगेबां का, छोटा सा फसाना।

माहौल-ए-मौहब्बत, है या है तनहाई,
कि मुज़रिम को बरी करने के तरीके।
खवाहिश आखिरी इतनी सी रहेगी
कि दुनिया को दिखें ये जुल्मी सलीके।

जागती आँखों को सपने ने फंसाया,
अंधा किया तुमने पलकों को गिरा के।
तमन्ना लिये अब फिर बेसुध पडा हूँ,
कि कत्ल करो मेरा, फिर हांथों को फ़िरा के।

Monday, October 08, 2007

ये पहेली ही, मेरी ज़िन्दगानी है।

क्या चीज़ है ये दिल भी दिलबर
कि आज लिया, कल लौटा दे।
निशां प्यार का, होता रेत नही,
कि आकर पानी, बल मिटा दे।

दो सदियों से हांथों मे मेरे
हाथ किसी का अमानत है।
अब बैठा हूँ खुदगर्ज़ी मे, देखें
आती कब तक, ये कयामत है?

अल्फ़ाज़ों की रहकर छाया मे,
आगाज़ मौन को देता हूँ।
तुझे पाकर तो, मै मर जाता,
तुझे खोकर ही, अब जी लेता हूँ।

तुम मेरी ना, हूँ मै तेरा,
ये पहेली ही, मेरी ज़िन्दगानी है।
तुम जिसकी होकर साथ मेरे,
उसके ख्वाबों की ये कहानी है।

Thursday, August 23, 2007

बहने इसी के कम से कम

जो पड़ी, नजरअंदाज तुम
क्यो मुझे करती हो?
कुछ सुनना मुझसे कि
बोलने से ख़ुद डरती हो?

क्यो मौन का श्रृंगार कर
बातो से मुह मोडा है?
ये आदि का ग़ुस्सा है कि
नखरा आज का थोड़ा है?

चलो हवाओं कि उंगली पकड़
बातें कुछ हैं करते
उस झीने के तल जाकर
थोड़ा वहाँ ठहरते

और ये भी मंजूर नही तो
क्या मुस्काना भी ना आएगा?
बहने इसी के कम से कम
ये मुआ दिन बीत जायेगा

-मनव
२३ अगस्त २००७

Monday, August 20, 2007

मेरे पल भर का सपना टूटा।

क्यों नहीं अब आती मुझको
वो चंचल मन की फरियादें?
होंठ नही खुलते क्यो मेरे?
मुझको कोई ये समझा दे।


भी क्यों हांथों के सहलाने
पर स्पर्श मौन सा रहता?
होठों के क्र्नदन पर भी
अंतर मन कुछ ना कहता।


क्यो जड़ सी इस काया को
पत्थर ही अब लगते प्यारे?
चेहरे मे अपनो के भी
अब परदेसी मिलते सारे।


वो प्रेम भरा आंचल क्यों अब
नकाबों की याद दिलाता है?
बोल वो मीठे से दो
विष की फुंकार सा आता है।


ये किया हुआ सारा तेरा
फिर क्यों मै अपने से रूठा?
मै हैरां हूँ इस मंज़र पे
मेरे पल भर का सपना टूटा।


-मनव
(१४ अगस्त ’०७)

अब मेरे पीछे ना आना।

क्यों ज़बां-गवाही की फरियाद?
क्यों आंखें ना अब कोई पढ़ता है?
प्यार मुझसे तुमको है कितना?
अब ये पूछना क्यो पड़ता है?


क्यों हंसने पर भर संका से
सवालात किये जाते हैं फिर?
क्यो कहने पर कि "कैसी हो?"
अधर तुम्हारे हो जाते हैं स्थिर?


मेरे दिल की हर धड़कन पर
क्यों पूछा ये नाम है किसका?
क्यो घाव पर मुस्का कर नोचा
बह रहा लहू लाल है जिसका?


क्यो मेरे अनुराग को तुमने
जांचा बना के लेना-देना?
देख लिया मैने सब कुछ अब
चाह्ता हूँ आंखे बंद कर लेना।


मै अब थोड़ा सा अकेले
चाहता हूँ पैदल जाना।
वो रस्ते जो कुछ भी होंगे
अब मेरे पीछे ना आना।


-मनव
(२० अगस्त २००७)

विदा कहूँ तो भी कैसे

आखीरी, तल मे पड़ी, गीली
बूंदें दो-चार, पी लेने दो।
क्षण-भंगुर इस सपने के
पल अंतिम को, जी लेने दो।

महकने दो उन फूलों को
पल मे जो मुरझाने वालें हैं।
छूने दो शाखाओं को, पर जिस
ये खिलते मतवाले हैं।

रौंदो अब उस घरोंदे को
जिससे हम खेले ही नही।
साथ जिसे हमने खीचां वो
अब लगते अकेले ही सही।

आओ उस छोटी चिडिया के
काट परों को हम देते है।
वो चल ना सके, खातिर उसके
उखाड़, पैरों को हम देते हैं।

अब दोराहे पर चलना साथ
हम-तुमको भाता ही नही।
विदा कहूँ तो भी कैसे, वो
कहना मुझको आता ही नही।

-मनव
(२० अगस्त २००७)

Friday, August 17, 2007

क्या दूरी ही अब उत्तर देगी?

तुम क्यों अब भी, एक रहस्य हो?
क्यो हो अब भी तुम, एक पहेली?
क्यों कभी मस्तक पर रेखा सी
क्यों कभी तितली सी अलबेली?

ज़ख्मों को कपड़ों से ढक कर
क्यों मजबूर हंसी को करती?
विस्मित से, उलझे से मन मे
रूप खुशी का, दुख क्यों धरती?

तुम क्यों अब भी, झुलसी सी हो?
क्यों अब भी ना तुम, मेरी सहेली?
क्यों अब भी तुम, भूत मे भटको?
क्यों मेरी बांहों, मे भी अकेली?

प्रेम का धागा बीच हमारे
बंधन से क्यों है घबराता?
हीरे मोती बेदाग पड़े है, फिर
पिरा-हार क्यों बन नही पाता?

हूँ मै क्या सूनेपन का सहारा?
धडकन अब सूई सी है नुकेली।
क्या दूरी ही अब उत्तर देगी, जो
शपथ तुमने ’बोलते’-मौन की ले ली।
क्यों कभी मस्तक पर रेखा सी
क्यों कभी तितली सी अलबेली?

-मनव (१७ अगस्त २००७)

तुम सजना, फिर भी ना आये।

आंखों से तेरा हांथ हटा कर
कुछ कहने को, मैने लब थे हिलाये।
दो बातें कहनी थी तुमसे, और
तुम तीजे की रट थे लगाये।
बीते सावन कितने सारे,
तुम सजना, फिर भी ना आये।

जाने से पहले का वादा
भूं पर मिटने की मर्यादा।
वादा की संदेशे पर
दो आंसू भी निकले ना पाये।
संदेशे आये, आंसू लाये।
तुम सजना, फिर भी ना आये।

चूड़ी का तोहफा चमकीला
चुनरी का जो रंग था पीला।
झुमके की झन-झन पर तुमने
प्रेम भरे जो गीत सुनाये।
टूटी चूड़ी, अब हाथों मे ना समाये।
तुम सजना, फिर भी ना आये।

मेरे होंठों की प्यास अधूरी
तेरे बिना मै कहां हूँ पूरी?
लिये बिना मुझको तुम कैसे
अपने अंत-सफर जा पाये?
तेरी अग्नी, मेरी भी बन जाये
तुम सजना, फिर भी ना आये।

-मनव (१८ अगस्त २००७)

Sunday, August 12, 2007

इतना सा बस कहता हूँ

देखो इतना सा कहता हूँ
कस कर दरवाज़े बन्द कर लेना।
दिल को ताले मे रखना और
धड़कन धीरे, चंद कर लेना।

धीरे से, सांसों से कहना
कम कर दें कुछ आना जाना।
झपकें ना ये पलक नयन की
आंखों को इतना समझाना।

कहना होंठों की लाली से
होली तक, बस ये रुक जायें।
कानो की बाली मे लिपटे
मोती को ना अब झलकायें।

बालों से भी कह देना कि
ठीक नही खुल कर रहना।
बेसब्र ना हो ये पल पल मे
अंगड़ाई अपनी से कहना।

इतना सा बस कहता हूँ
बाकी ना हम बतलाएगें।
सुन लो मेरी फ़रियादें वर्ना
कितने दीवाने लुट जायेंगें।

-मनव (13th Aug '07)

Saturday, August 11, 2007

ये दस दिन कितने भारीं हैं।

हँसने पर भी जो आ जाते
आंसू भी कितने व्यापारी हैं।
आज, बिना नम हो कर रोता
ये दस दिन कितने भारीं हैं।

यादों मे खोना और कहना
कि अब जीना दुशवारी है।
कहता सीने मे जलता दिल
ये दस दिन कितने भारीं हैं।

मै करवट जब भी लेता हूँ
तेरी, कानो मे गूँजे किलकारी है।
तुझे ना पाकर मै सहमा सा
ये दस दिन कितने भारीं हैं।

स्पर्श तेरा, झगडे - बातें
याद मुझे वो सारीं हैं।
अपर्याप्त तेरे लिये मै, पर
ये दस दिन कितने भारी हैं।

ये घड़ी भी जुल्मी, है रुक जाती
अब और दूरी ना गवारी है।
मै वक्त देख, काटूं वक्त को
ये दस दिन कितने भारीं हैं।

तेरे आने की बात नही
तेरी याद ही बन गयी महामारी है।
मै नित जी कर फिर मरता हूँ
ये दस दिन कितने भारीं हैं।

-मनव (Aug 11th '07)

Friday, August 10, 2007

आने की विनती ना करता

पहरे मे पलों के, मै चुप
परछाई से अपनी कतराता।
बारिश मे, लब सख़्तों से,
तुमसे बस इतना कह पाता।

कह पाता की नींद अधूरी
अधूरा ये मेरा है सपना।
कमरे की खाली दीवारों
पर दिखता कोई है अपना।

कहना था कि - बड़ी टीस है
लगता मुझको, जब दरवाज़े चर्राते।
वो परदे का हलके से हिलना
काश मध्य से तुम आ जाते।

फ़नफ़नाती बयार मे पल-पल
अब भी तेरी हंसी व्याप्त है।
आ जाने का किया जो वादा
लगता नही वो अब पर्याप्त है।

बस इतना सा कहना, तुम बिन
सूना ये, कब से गलियारा।
आने की विनती ना करता, ’गर
संग ले जाती ये दिल बेचारा।

-मनव (Aug 10th '07)

Wednesday, August 01, 2007

क्यों दिवाना बनाया?

तेरे केशों का धागा, बिस्तर पर मेरे
रातों की कहानी, बयां कर रहा है।
कुछ सपने बने थे, या तुम आई थी?
तकिये की सिलवट पुरानी, नया कर रहा है।

बुदबुदाती झिल्ली सी कमसिन, होंठों की मधुरता
सुनता अब भी मै अकसार, कानों मे अपने।
मैने देखा तुम्हे या, परछाई छिपी थी?
पागल मुझसे ही लगते, दिवानों के सपने।

छोटे से कमरे की चारों, दिवारें है गूंजे
उससे, तुमने कहा, मुझसे जो कल था।
दर्पण भी सोचे, वो सच था या झूठा?
झूठा ही सही पर, अनोखा वो पल था।

मै उठ कर हूँ बैठूं जैसे हांथों को तेरे
देह पर मेरे सरकती, तुम्हारी है काया।
ये उगती सुबह की फ़िज़ा भी परेशां।
दिवाने मन को, क्यों फिरसे दिवाना बनाया।

-मनव (28th July '07)

सामने बैठ कर

सामने बैठ कर, एक टक जो देखती हो
इन सांसों के स्पंदन मे भी मौन सा है।
यूँ हंसने से पहले, निगाहें झुकाना
कहो ये निशाना, अभी, कौन सा है?

बांहें पकड़ कर उनहें, उफ़ झटकना
ज़हर के बिना भी मारना जानती हो।
मस्तक की रेखा का नित यूं बदलना
खुद को खुदा क्या, शोखियों का मानती हो?

होंठों के सहारे, बदन नापना जो
नशा अंगडाई का, अब परेशां क्या बताये?
चादर के रेशों सी पकड़ उंगलियों को
बतौरे निशनी क्या गला वो दिखाये?

उंगलियां फिरती, पीठ पर चीटियों सी
नाखुनो की कुरद मे, ये कैसी कसक है?
जकड़ उन करों की, बेलों सी चिपटे
केशों के धुंये मे क्यों कस्तूरी महक है?

सुस्ताती आँखों मे, पुंज रौशनी का
पलकों के किनारे, सितारों की लता है।
मेरे हांथो मे बैठा, पलता एक चेहरा
चंचल सी तितली, का वो पता है।

-मनव (24th July '07)

Tuesday, July 31, 2007

क्यों प्यार करता हूँ तुम्हे मै

क्यों प्यार करता हूँ तुम्हे मै,
मै ढूंढता उसके बहाने।
मेरे सुर मे जो शब्द डाले
मै खोजता ऐसे तराने।

सीप सी आँखों के तल मे,
मोती नित क्यो पल रहा है?
परे पंखुड़ियों की लहर के
नीचे क्या क्या चल रहा है?

वर्क सोने का पहन कर
मुझको ऐसे ना रिझाओ।
पर्दे जिसमे एक ना हों
वो रूप वासत्विक दिखाओ।

स्वप्न देखा जो गोधुली मे
उसकी क्या तुम ईक स्मृति हो?
या, धुंध भरी, माया ही हो तुम,
कैसी विस्मयी तुम कृति हो?

-मनव

Wednesday, July 04, 2007

मै बैठ तुम्हारी राह देखता।

I wrote these lines sitting infront of Stella's at collagetown in Ithaca, June 4th '07. It was raining mildly and the water falling on the road infront of me inspired me to write down some stuff. I jotted down a few lines on a piece of paper and later refined them sitting in my cubicle to the following. Enjoy them! :)

बूँदों के कलरव मे उत्सुक,
मै बैठ तुम्हारी राह देखता।
गर्म जमीं से उठता धूंआ,
मीचीं आंखों पर छींट फेंकता।

त्वरित धरा पर बूंदाबांदी,
परौं पर पडता ये पानी।
वृष खडा, उलझे से पत्ते,
बहती हवा, करती मनमानी।

छ्न कर गिरते ये मोती,
अरमानों के गीत सुनाते।
आंख मुंद कर मैं बैठा हूँ,
खोले पर, जो तुम आ जाते।

दीवारो से रिसती लडियां,
रेश सरीखी, मै हूँ अभिलाषा।
धूल धरा की उत्कंठा सा,
मै भी वर्षो का हूँ प्यासा।

सडक पार खडा पथिक है,
देख मचलती है ये स्याही।
मै बैठ किनारे राह देखता,
आ जाओ मेरे हम-राही।

-मनव

Wednesday, June 27, 2007

शाम आज कुछ उदास है।

इस सन्नाती गर्म हवा मे
धीमी चलती मेरी स्वास है।
बीच गगन के बादल झांकें,
ये शाम आज कुछ उदास है।

कहे हांथो पर सोता गाल,
आज नही कोई आसपास है।
आंखों का चितकबरा दर्पण
शाम दिखती कुछ उदास है।

महक पुराने दिनों की चहकी,
करती भंग, ध्यान अनायास है।
रूखे हांथों से किताब पलटना,
शाम, निश्चय ही, कुछ उदास है।

चुप लब्जों पर, यार मेरे का
याद मुझे वो अति-परिहास है।
उदास शाम ये बैठ के सिसके,
इतना तो मुझको आभास है।

-मनव

(The evening is gloomy today)

In this warm wafting air
my breath pulsates tardily.
Inbetween the skys, peeks the clouds
This evening is gloomy today.

The chin resting on my hands
says there is nobody around today.
The spotted mirror in the eyes,
reflects the forlorn evening.

The smell of old days chirping
breaks my attention suddenly.
The rude turning of pages
tells the story of the sad evening.

On my dead lips, of my friends
I remember the excess-jesting.
The pitiful evening sits and cries
And I realise it very well.

Sunday, May 13, 2007

कैसा तू निराला है?

ये पंक्तियाँ उस तेजस्वी उर्जा के लिये है, जो पल पल मेरा और असंख्यो का जीवन आलोकित करती है। ये आश्चर्य उस अनुभूति के लिये है, जिसने निःस्वार्थ भाव से, मायूसी की सर्दी मे मुझे अभूतपूर्व उष्मा दी है। उस तरंग के प्रति ये मेरा अनुराग है।

अंधेरे की गहराई, संन्नाटे की चीख़ों मे
गिरते हुये मुक्द्दर को, ये किसने संभाला है?
बंद आंखों की परछाई, चमक से हैंरा बैठी है।
आधी रात मे हमदम, कैसा ये उजाला है?

किसने हलचल है ये की? है चिंगारी दी, किसने
आंग से खेलने का ये, कातिल शौक पाला है?
मेरे सूखे से होंठों की प्यास फिर से है जागी,
इस रुके से दरिया मे, पत्थर ये किसने डाला है?

हांथों की नब्ज़ का, दिल से लेना था, ना देना।
दिल से रगों तक बहता, लोहा ये किसने पिघाला है?
पड़ा आनन की धूली मे, वक्त सदियों से जो जड़ था,
अब थमता नही पल भर, मन कैसा ये मतवाला है?

मैं आंखें झपकाऊ, निष्ठुरता से तुम्हे ताकूं।
मौन के स्वर्ण दिवस पर इस, कौन ये हंसनेवाला है?
पलक जो खोली है मैंने, तुम्हे पाकर अचंभा है।
अपने दंभ पर हंसता, कैसा तू निराला है?

(How strange you are?)

These Lines are for that splendid warmth, which has lightened my and other's life every second. This Surprise is for that feeling, which selflessly heated me in forlorn winters. This is my love for that vibration.

In the abyss of darkness, amongst the shouts of silence
who has braced my falling fate?
The shadow behind the closed eyes, has been taken aback by the brilliance.
At the stroke of midnight, what is this bright glaze?

Who has initiated this movement? Who provided the spark?
The fatal wont of playing with fire, has been invoked.
The thirst of my dried lips has risen again
Who perturbed this stalemate lake with a pebble?

The pulses of hands never had any relation with the heart.
Who has molten iron, which runs from my heart to my arteries.
Embedded inside the dust of earth, time which was still for an eon
It doesn't stop for a while now. What a silly heart it is!

I blink my eyes, I see you with apathy
Who is laughing on the golden day of muteness?
I am surprised to see you infront of my eyes, after opening them
laughing at your audacity, how strange you are?

Thursday, March 15, 2007

हम तो सिर्फ़ प्यार कहते हैं।

किताबों की लकीरों मे
दिखे जब एक ही चेहरा।
दिलो के हर किवाड़े पर
लगे जब एक ही पहरा।

हवा की हर फ़िज़ाओ मे
आवाज़, जब एक सुनाई दे।
गगन के चलते बादल मे
चेहरा एक दिखाई दे।

हरी, जब उड़ती चुनरी की,
झलक सिर्फ़, एक काफ़ी हो।
खता उसकी, हर के लिये
पास केवल तुम्हारे माफ़ी हो।

दौड़ती, चलती भीड़ो मे
उसे, यूँ झट से ख़ोज लेना।
उठते सुबह ही बिसतर से
नाम उसका रोज़ लेना।

चलते चलते पैंरों का
आचानक थम सा जाना।
लिख़ते लिख़ते हांथों का,
आचानक जम सा जाना।

गालों पर यूँ हाथ रख कर
घंटो बैठे रह जाना।
चुहले की मंद आंच पर भी
रोटी का रोज़ जल जाना।

बसों का आना और जाना,
जब इसका भी फ़र्क नही पड़ता।
जब बीच ज़िग्री दोस्तों के
मन किसी और का करता।

उसका कुछ भी ना होकर
तुम उसका सब कुछ हो जानो।
उससे बात ना करके भी,
तुम उसको अपना हो मानो।

रात अब जिन्दगी मे जब
नीदं लेकर के ना आये।
घड़ी के घंटों की सुई
मिनट के वेग से जाये।

ऐसी हालत जब होती है
पागल, लोग, बेशुमार कहते हैं।
खुदा की इस इबादत को
हम तो सिर्फ़ प्यार कहते हैं।
हम तो सिर्फ़ प्यार (infatuation :) )कहते हैं।

- मनव

Wednesday, March 14, 2007

अब, चाहत सी है।

अलफ़ाज़ों मे खो जाना, तुम्हें सपने और किस्से सुनाना
कहने की, सुनाने की, आदत सी है।
पर आज चुप होकर, महसूस करता हूँ
तुम्हे देखते रहने की हिदायत सी है।

हाँथों को पकड़ कर, उनकी लकीरें देखता हूँ,
देखता हूँ तेरे आंचल मे, ईक आहट सी है।
आँखों मे बैठे नूर की, चेहरे पर पडती रौशनी
ये जन्नत! खुदा की इनायत सी है।

ये हवा का पैगाम है, कि तेरी सांसो की महक?
तेरे अधरों के कम्पन्न मे, संगीत, चहचहाट सी है।
यूँ हाँथों को छुडा के दूर चले जाना,
ज़ालिम! तेरे मुँह मोडने मे भी, गज़ब की शरारत सी है।

बांहो मे रहो तुम, कहीं दूर ना जाओ
इक पल की दूरी तुमसे, अब तो, कयामत सी है।
यूँ सुनता रहूँ आवाज़ तेरी, देखूँ तेरा चेहरा
इतनी सी दिलेतमन्ना, बस, अब चाहत सी है।

- मनव

(There's a wish now!)

I dissolve in words, I tell you my dreams and anecdotes
I have been a raconteur, with a habit of telling and you listening.
But today I am lip-locked and I just feel your presence
There's almost a subtle signal to keep attending to your face, with me silent.

I hold your hands, and fiddle witht the lines running on your palms.
I see there is a quiver in your lap gown.
The luster sitting in your eyes, illuminates your face with light
O' this heaven! It's the majestic grace of God.

Is it a message from the flowing air, or rather the smell of your breath?
The vibe on your lips, is music, is chirping of birds.
This manner of suddenly ridding your hands from my hold.
O' Heartless! Even your turning away from me, is so peculiarly mischievous.

Nest in my arms, don't go any far away from me.
A second away from you now, is doomsday to me.
I want your voice to suffuse my ears,
I want to keep staring at your face. that is all My Love, and that is all I wish now.

-manav