Friday, October 26, 2007

कत्ल किया तुमने, हाथों को फ़िरा के।

नज़र किस डगर पे, ये ऐसे चली है,
कि ढूंढें है तुमको, भी आंखें चुरा के।
ये आलसाया मै हूँ या तुम हुई ओझल,
कि कत्ल किया तुमने, हाथों को फ़िरा के।

ये ज़ख्म बदनसीबी, इश्क का गहरा।
ये गुलामी का आलम, बेहोशी का बहाना।
कि कैसे बताऊ ये दवा ही ज़हर है,
ये हुस्न-ए-निगेबां का, छोटा सा फसाना।

माहौल-ए-मौहब्बत, है या है तनहाई,
कि मुज़रिम को बरी करने के तरीके।
खवाहिश आखिरी इतनी सी रहेगी
कि दुनिया को दिखें ये जुल्मी सलीके।

जागती आँखों को सपने ने फंसाया,
अंधा किया तुमने पलकों को गिरा के।
तमन्ना लिये अब फिर बेसुध पडा हूँ,
कि कत्ल करो मेरा, फिर हांथों को फ़िरा के।

Monday, October 08, 2007

ये पहेली ही, मेरी ज़िन्दगानी है।

क्या चीज़ है ये दिल भी दिलबर
कि आज लिया, कल लौटा दे।
निशां प्यार का, होता रेत नही,
कि आकर पानी, बल मिटा दे।

दो सदियों से हांथों मे मेरे
हाथ किसी का अमानत है।
अब बैठा हूँ खुदगर्ज़ी मे, देखें
आती कब तक, ये कयामत है?

अल्फ़ाज़ों की रहकर छाया मे,
आगाज़ मौन को देता हूँ।
तुझे पाकर तो, मै मर जाता,
तुझे खोकर ही, अब जी लेता हूँ।

तुम मेरी ना, हूँ मै तेरा,
ये पहेली ही, मेरी ज़िन्दगानी है।
तुम जिसकी होकर साथ मेरे,
उसके ख्वाबों की ये कहानी है।