Monday, August 20, 2007

विदा कहूँ तो भी कैसे

आखीरी, तल मे पड़ी, गीली
बूंदें दो-चार, पी लेने दो।
क्षण-भंगुर इस सपने के
पल अंतिम को, जी लेने दो।

महकने दो उन फूलों को
पल मे जो मुरझाने वालें हैं।
छूने दो शाखाओं को, पर जिस
ये खिलते मतवाले हैं।

रौंदो अब उस घरोंदे को
जिससे हम खेले ही नही।
साथ जिसे हमने खीचां वो
अब लगते अकेले ही सही।

आओ उस छोटी चिडिया के
काट परों को हम देते है।
वो चल ना सके, खातिर उसके
उखाड़, पैरों को हम देते हैं।

अब दोराहे पर चलना साथ
हम-तुमको भाता ही नही।
विदा कहूँ तो भी कैसे, वो
कहना मुझको आता ही नही।

-मनव
(२० अगस्त २००७)

No comments: