Friday, October 26, 2007

कत्ल किया तुमने, हाथों को फ़िरा के।

नज़र किस डगर पे, ये ऐसे चली है,
कि ढूंढें है तुमको, भी आंखें चुरा के।
ये आलसाया मै हूँ या तुम हुई ओझल,
कि कत्ल किया तुमने, हाथों को फ़िरा के।

ये ज़ख्म बदनसीबी, इश्क का गहरा।
ये गुलामी का आलम, बेहोशी का बहाना।
कि कैसे बताऊ ये दवा ही ज़हर है,
ये हुस्न-ए-निगेबां का, छोटा सा फसाना।

माहौल-ए-मौहब्बत, है या है तनहाई,
कि मुज़रिम को बरी करने के तरीके।
खवाहिश आखिरी इतनी सी रहेगी
कि दुनिया को दिखें ये जुल्मी सलीके।

जागती आँखों को सपने ने फंसाया,
अंधा किया तुमने पलकों को गिरा के।
तमन्ना लिये अब फिर बेसुध पडा हूँ,
कि कत्ल करो मेरा, फिर हांथों को फ़िरा के।

1 comment:

abhas said...

कि कत्ल करो मेरा, फिर apni kalam chala के। :-)