Wednesday, August 01, 2007

सामने बैठ कर

सामने बैठ कर, एक टक जो देखती हो
इन सांसों के स्पंदन मे भी मौन सा है।
यूँ हंसने से पहले, निगाहें झुकाना
कहो ये निशाना, अभी, कौन सा है?

बांहें पकड़ कर उनहें, उफ़ झटकना
ज़हर के बिना भी मारना जानती हो।
मस्तक की रेखा का नित यूं बदलना
खुद को खुदा क्या, शोखियों का मानती हो?

होंठों के सहारे, बदन नापना जो
नशा अंगडाई का, अब परेशां क्या बताये?
चादर के रेशों सी पकड़ उंगलियों को
बतौरे निशनी क्या गला वो दिखाये?

उंगलियां फिरती, पीठ पर चीटियों सी
नाखुनो की कुरद मे, ये कैसी कसक है?
जकड़ उन करों की, बेलों सी चिपटे
केशों के धुंये मे क्यों कस्तूरी महक है?

सुस्ताती आँखों मे, पुंज रौशनी का
पलकों के किनारे, सितारों की लता है।
मेरे हांथो मे बैठा, पलता एक चेहरा
चंचल सी तितली, का वो पता है।

-मनव (24th July '07)

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