Monday, August 20, 2007

मेरे पल भर का सपना टूटा।

क्यों नहीं अब आती मुझको
वो चंचल मन की फरियादें?
होंठ नही खुलते क्यो मेरे?
मुझको कोई ये समझा दे।


भी क्यों हांथों के सहलाने
पर स्पर्श मौन सा रहता?
होठों के क्र्नदन पर भी
अंतर मन कुछ ना कहता।


क्यो जड़ सी इस काया को
पत्थर ही अब लगते प्यारे?
चेहरे मे अपनो के भी
अब परदेसी मिलते सारे।


वो प्रेम भरा आंचल क्यों अब
नकाबों की याद दिलाता है?
बोल वो मीठे से दो
विष की फुंकार सा आता है।


ये किया हुआ सारा तेरा
फिर क्यों मै अपने से रूठा?
मै हैरां हूँ इस मंज़र पे
मेरे पल भर का सपना टूटा।


-मनव
(१४ अगस्त ’०७)

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