Friday, August 17, 2007

क्या दूरी ही अब उत्तर देगी?

तुम क्यों अब भी, एक रहस्य हो?
क्यो हो अब भी तुम, एक पहेली?
क्यों कभी मस्तक पर रेखा सी
क्यों कभी तितली सी अलबेली?

ज़ख्मों को कपड़ों से ढक कर
क्यों मजबूर हंसी को करती?
विस्मित से, उलझे से मन मे
रूप खुशी का, दुख क्यों धरती?

तुम क्यों अब भी, झुलसी सी हो?
क्यों अब भी ना तुम, मेरी सहेली?
क्यों अब भी तुम, भूत मे भटको?
क्यों मेरी बांहों, मे भी अकेली?

प्रेम का धागा बीच हमारे
बंधन से क्यों है घबराता?
हीरे मोती बेदाग पड़े है, फिर
पिरा-हार क्यों बन नही पाता?

हूँ मै क्या सूनेपन का सहारा?
धडकन अब सूई सी है नुकेली।
क्या दूरी ही अब उत्तर देगी, जो
शपथ तुमने ’बोलते’-मौन की ले ली।
क्यों कभी मस्तक पर रेखा सी
क्यों कभी तितली सी अलबेली?

-मनव (१७ अगस्त २००७)

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