Friday, August 10, 2007

आने की विनती ना करता

पहरे मे पलों के, मै चुप
परछाई से अपनी कतराता।
बारिश मे, लब सख़्तों से,
तुमसे बस इतना कह पाता।

कह पाता की नींद अधूरी
अधूरा ये मेरा है सपना।
कमरे की खाली दीवारों
पर दिखता कोई है अपना।

कहना था कि - बड़ी टीस है
लगता मुझको, जब दरवाज़े चर्राते।
वो परदे का हलके से हिलना
काश मध्य से तुम आ जाते।

फ़नफ़नाती बयार मे पल-पल
अब भी तेरी हंसी व्याप्त है।
आ जाने का किया जो वादा
लगता नही वो अब पर्याप्त है।

बस इतना सा कहना, तुम बिन
सूना ये, कब से गलियारा।
आने की विनती ना करता, ’गर
संग ले जाती ये दिल बेचारा।

-मनव (Aug 10th '07)

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