Wednesday, August 01, 2007

क्यों दिवाना बनाया?

तेरे केशों का धागा, बिस्तर पर मेरे
रातों की कहानी, बयां कर रहा है।
कुछ सपने बने थे, या तुम आई थी?
तकिये की सिलवट पुरानी, नया कर रहा है।

बुदबुदाती झिल्ली सी कमसिन, होंठों की मधुरता
सुनता अब भी मै अकसार, कानों मे अपने।
मैने देखा तुम्हे या, परछाई छिपी थी?
पागल मुझसे ही लगते, दिवानों के सपने।

छोटे से कमरे की चारों, दिवारें है गूंजे
उससे, तुमने कहा, मुझसे जो कल था।
दर्पण भी सोचे, वो सच था या झूठा?
झूठा ही सही पर, अनोखा वो पल था।

मै उठ कर हूँ बैठूं जैसे हांथों को तेरे
देह पर मेरे सरकती, तुम्हारी है काया।
ये उगती सुबह की फ़िज़ा भी परेशां।
दिवाने मन को, क्यों फिरसे दिवाना बनाया।

-मनव (28th July '07)

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