Thursday, August 23, 2007

बहने इसी के कम से कम

जो पड़ी, नजरअंदाज तुम
क्यो मुझे करती हो?
कुछ सुनना मुझसे कि
बोलने से ख़ुद डरती हो?

क्यो मौन का श्रृंगार कर
बातो से मुह मोडा है?
ये आदि का ग़ुस्सा है कि
नखरा आज का थोड़ा है?

चलो हवाओं कि उंगली पकड़
बातें कुछ हैं करते
उस झीने के तल जाकर
थोड़ा वहाँ ठहरते

और ये भी मंजूर नही तो
क्या मुस्काना भी ना आएगा?
बहने इसी के कम से कम
ये मुआ दिन बीत जायेगा

-मनव
२३ अगस्त २००७

Monday, August 20, 2007

मेरे पल भर का सपना टूटा।

क्यों नहीं अब आती मुझको
वो चंचल मन की फरियादें?
होंठ नही खुलते क्यो मेरे?
मुझको कोई ये समझा दे।


भी क्यों हांथों के सहलाने
पर स्पर्श मौन सा रहता?
होठों के क्र्नदन पर भी
अंतर मन कुछ ना कहता।


क्यो जड़ सी इस काया को
पत्थर ही अब लगते प्यारे?
चेहरे मे अपनो के भी
अब परदेसी मिलते सारे।


वो प्रेम भरा आंचल क्यों अब
नकाबों की याद दिलाता है?
बोल वो मीठे से दो
विष की फुंकार सा आता है।


ये किया हुआ सारा तेरा
फिर क्यों मै अपने से रूठा?
मै हैरां हूँ इस मंज़र पे
मेरे पल भर का सपना टूटा।


-मनव
(१४ अगस्त ’०७)

अब मेरे पीछे ना आना।

क्यों ज़बां-गवाही की फरियाद?
क्यों आंखें ना अब कोई पढ़ता है?
प्यार मुझसे तुमको है कितना?
अब ये पूछना क्यो पड़ता है?


क्यों हंसने पर भर संका से
सवालात किये जाते हैं फिर?
क्यो कहने पर कि "कैसी हो?"
अधर तुम्हारे हो जाते हैं स्थिर?


मेरे दिल की हर धड़कन पर
क्यों पूछा ये नाम है किसका?
क्यो घाव पर मुस्का कर नोचा
बह रहा लहू लाल है जिसका?


क्यो मेरे अनुराग को तुमने
जांचा बना के लेना-देना?
देख लिया मैने सब कुछ अब
चाह्ता हूँ आंखे बंद कर लेना।


मै अब थोड़ा सा अकेले
चाहता हूँ पैदल जाना।
वो रस्ते जो कुछ भी होंगे
अब मेरे पीछे ना आना।


-मनव
(२० अगस्त २००७)

विदा कहूँ तो भी कैसे

आखीरी, तल मे पड़ी, गीली
बूंदें दो-चार, पी लेने दो।
क्षण-भंगुर इस सपने के
पल अंतिम को, जी लेने दो।

महकने दो उन फूलों को
पल मे जो मुरझाने वालें हैं।
छूने दो शाखाओं को, पर जिस
ये खिलते मतवाले हैं।

रौंदो अब उस घरोंदे को
जिससे हम खेले ही नही।
साथ जिसे हमने खीचां वो
अब लगते अकेले ही सही।

आओ उस छोटी चिडिया के
काट परों को हम देते है।
वो चल ना सके, खातिर उसके
उखाड़, पैरों को हम देते हैं।

अब दोराहे पर चलना साथ
हम-तुमको भाता ही नही।
विदा कहूँ तो भी कैसे, वो
कहना मुझको आता ही नही।

-मनव
(२० अगस्त २००७)

Friday, August 17, 2007

क्या दूरी ही अब उत्तर देगी?

तुम क्यों अब भी, एक रहस्य हो?
क्यो हो अब भी तुम, एक पहेली?
क्यों कभी मस्तक पर रेखा सी
क्यों कभी तितली सी अलबेली?

ज़ख्मों को कपड़ों से ढक कर
क्यों मजबूर हंसी को करती?
विस्मित से, उलझे से मन मे
रूप खुशी का, दुख क्यों धरती?

तुम क्यों अब भी, झुलसी सी हो?
क्यों अब भी ना तुम, मेरी सहेली?
क्यों अब भी तुम, भूत मे भटको?
क्यों मेरी बांहों, मे भी अकेली?

प्रेम का धागा बीच हमारे
बंधन से क्यों है घबराता?
हीरे मोती बेदाग पड़े है, फिर
पिरा-हार क्यों बन नही पाता?

हूँ मै क्या सूनेपन का सहारा?
धडकन अब सूई सी है नुकेली।
क्या दूरी ही अब उत्तर देगी, जो
शपथ तुमने ’बोलते’-मौन की ले ली।
क्यों कभी मस्तक पर रेखा सी
क्यों कभी तितली सी अलबेली?

-मनव (१७ अगस्त २००७)

तुम सजना, फिर भी ना आये।

आंखों से तेरा हांथ हटा कर
कुछ कहने को, मैने लब थे हिलाये।
दो बातें कहनी थी तुमसे, और
तुम तीजे की रट थे लगाये।
बीते सावन कितने सारे,
तुम सजना, फिर भी ना आये।

जाने से पहले का वादा
भूं पर मिटने की मर्यादा।
वादा की संदेशे पर
दो आंसू भी निकले ना पाये।
संदेशे आये, आंसू लाये।
तुम सजना, फिर भी ना आये।

चूड़ी का तोहफा चमकीला
चुनरी का जो रंग था पीला।
झुमके की झन-झन पर तुमने
प्रेम भरे जो गीत सुनाये।
टूटी चूड़ी, अब हाथों मे ना समाये।
तुम सजना, फिर भी ना आये।

मेरे होंठों की प्यास अधूरी
तेरे बिना मै कहां हूँ पूरी?
लिये बिना मुझको तुम कैसे
अपने अंत-सफर जा पाये?
तेरी अग्नी, मेरी भी बन जाये
तुम सजना, फिर भी ना आये।

-मनव (१८ अगस्त २००७)

Sunday, August 12, 2007

इतना सा बस कहता हूँ

देखो इतना सा कहता हूँ
कस कर दरवाज़े बन्द कर लेना।
दिल को ताले मे रखना और
धड़कन धीरे, चंद कर लेना।

धीरे से, सांसों से कहना
कम कर दें कुछ आना जाना।
झपकें ना ये पलक नयन की
आंखों को इतना समझाना।

कहना होंठों की लाली से
होली तक, बस ये रुक जायें।
कानो की बाली मे लिपटे
मोती को ना अब झलकायें।

बालों से भी कह देना कि
ठीक नही खुल कर रहना।
बेसब्र ना हो ये पल पल मे
अंगड़ाई अपनी से कहना।

इतना सा बस कहता हूँ
बाकी ना हम बतलाएगें।
सुन लो मेरी फ़रियादें वर्ना
कितने दीवाने लुट जायेंगें।

-मनव (13th Aug '07)

Saturday, August 11, 2007

ये दस दिन कितने भारीं हैं।

हँसने पर भी जो आ जाते
आंसू भी कितने व्यापारी हैं।
आज, बिना नम हो कर रोता
ये दस दिन कितने भारीं हैं।

यादों मे खोना और कहना
कि अब जीना दुशवारी है।
कहता सीने मे जलता दिल
ये दस दिन कितने भारीं हैं।

मै करवट जब भी लेता हूँ
तेरी, कानो मे गूँजे किलकारी है।
तुझे ना पाकर मै सहमा सा
ये दस दिन कितने भारीं हैं।

स्पर्श तेरा, झगडे - बातें
याद मुझे वो सारीं हैं।
अपर्याप्त तेरे लिये मै, पर
ये दस दिन कितने भारी हैं।

ये घड़ी भी जुल्मी, है रुक जाती
अब और दूरी ना गवारी है।
मै वक्त देख, काटूं वक्त को
ये दस दिन कितने भारीं हैं।

तेरे आने की बात नही
तेरी याद ही बन गयी महामारी है।
मै नित जी कर फिर मरता हूँ
ये दस दिन कितने भारीं हैं।

-मनव (Aug 11th '07)

Friday, August 10, 2007

आने की विनती ना करता

पहरे मे पलों के, मै चुप
परछाई से अपनी कतराता।
बारिश मे, लब सख़्तों से,
तुमसे बस इतना कह पाता।

कह पाता की नींद अधूरी
अधूरा ये मेरा है सपना।
कमरे की खाली दीवारों
पर दिखता कोई है अपना।

कहना था कि - बड़ी टीस है
लगता मुझको, जब दरवाज़े चर्राते।
वो परदे का हलके से हिलना
काश मध्य से तुम आ जाते।

फ़नफ़नाती बयार मे पल-पल
अब भी तेरी हंसी व्याप्त है।
आ जाने का किया जो वादा
लगता नही वो अब पर्याप्त है।

बस इतना सा कहना, तुम बिन
सूना ये, कब से गलियारा।
आने की विनती ना करता, ’गर
संग ले जाती ये दिल बेचारा।

-मनव (Aug 10th '07)

Wednesday, August 01, 2007

क्यों दिवाना बनाया?

तेरे केशों का धागा, बिस्तर पर मेरे
रातों की कहानी, बयां कर रहा है।
कुछ सपने बने थे, या तुम आई थी?
तकिये की सिलवट पुरानी, नया कर रहा है।

बुदबुदाती झिल्ली सी कमसिन, होंठों की मधुरता
सुनता अब भी मै अकसार, कानों मे अपने।
मैने देखा तुम्हे या, परछाई छिपी थी?
पागल मुझसे ही लगते, दिवानों के सपने।

छोटे से कमरे की चारों, दिवारें है गूंजे
उससे, तुमने कहा, मुझसे जो कल था।
दर्पण भी सोचे, वो सच था या झूठा?
झूठा ही सही पर, अनोखा वो पल था।

मै उठ कर हूँ बैठूं जैसे हांथों को तेरे
देह पर मेरे सरकती, तुम्हारी है काया।
ये उगती सुबह की फ़िज़ा भी परेशां।
दिवाने मन को, क्यों फिरसे दिवाना बनाया।

-मनव (28th July '07)

सामने बैठ कर

सामने बैठ कर, एक टक जो देखती हो
इन सांसों के स्पंदन मे भी मौन सा है।
यूँ हंसने से पहले, निगाहें झुकाना
कहो ये निशाना, अभी, कौन सा है?

बांहें पकड़ कर उनहें, उफ़ झटकना
ज़हर के बिना भी मारना जानती हो।
मस्तक की रेखा का नित यूं बदलना
खुद को खुदा क्या, शोखियों का मानती हो?

होंठों के सहारे, बदन नापना जो
नशा अंगडाई का, अब परेशां क्या बताये?
चादर के रेशों सी पकड़ उंगलियों को
बतौरे निशनी क्या गला वो दिखाये?

उंगलियां फिरती, पीठ पर चीटियों सी
नाखुनो की कुरद मे, ये कैसी कसक है?
जकड़ उन करों की, बेलों सी चिपटे
केशों के धुंये मे क्यों कस्तूरी महक है?

सुस्ताती आँखों मे, पुंज रौशनी का
पलकों के किनारे, सितारों की लता है।
मेरे हांथो मे बैठा, पलता एक चेहरा
चंचल सी तितली, का वो पता है।

-मनव (24th July '07)